Wednesday, April 23, 2025
संत - संस्कृति

Sadhvipramukha Kanakprabha जी का मेरी विकास यात्रा में बड़ा योगदान

जैन तेरापंथ धर्मसंघ के साध्वी समाज की प्रमुख और शासनमाता Sadhvipramukha Kanakprabha जी के तौर पर चर्चित विलक्षण साध्वी का आज सुबह देवलोकगमन हो गया. संत मुनि भूपेंद्र कुमार ने उनके प्रति अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. यह उनके अपने विचार है. तथास्तु टी वी के पाठकों के लिए हुबुहू प्रस्तुत किये जा रहे हैं. इनको खुले दिमाग से पढ़े, मनन करें और सत्यता से खुद को परिचित करवाएं.

संत मुनि भूपेंद्र कुमार जी का आलेख

बच्चा जब जन्म लेता है तब से उसकी जीवन यात्रा प्रारंभ हो जाती है और उसके निर्माण में माता के भूमिका सर्वोपरि रहती है. माता अपने मन में जो कल्पना करती है वह अपने पुत्र को उसी दिशा में आगे बढ़ाना प्रारंभ कर देती है. माता जब अपने पुत्र को आगे बढ़ते हुए देखती है तब उसके मन में और ज्यादा प्रसन्नता के भाव जागृत होने प्रारंभ हो जाते हैं.

माताएं हमेशा ही अपने पुत्र का ध्यान रखने वाली होती है. पुत्र है वह अपने जीवन में कभी भी दुख नहीं पाए माता भले ही दुख को सहन कर लेती है पर अपने पुत्र को कभी भी दुखी नहीं देख सकती है. वहीं वास्तव में सती माता कहलाने के अधिकारी बन सकती है.

मुझे माता प्राप्त हुई 

मैंने भी जब 46 वर्ष पूर्व आचार्य तुलसी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया था तब मेरे को तेरापंथ धर्म संघ में साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा के रूप में एक माता प्राप्त हुई थी. जिसने मेरे जीवन के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने में अपनी तरफ से कोई भी प्रकार की कमी नहीं रख रही थी.

मेरी गलतियों पर वह प्रहार करने में भी देरी नहीं लगाते थे तो मेरी अच्छाइयों को देखकर मुस्कुरा कर मेरे मन को उत्साहित करने में भी कोई प्रकार की कमी नहीं रखते थे. मैंने देखा मेरी माता Sadhvipramukha Kanakprabha के जीवन के अंदर यह दोनों ही महत्वपूर्ण उपलब्धियां मेरे जीवन को और ज्यादा आकर्षित करने वाली बनती जा रही थी.

माता का सच्चा दायित्व निभाया 

गलती पर चोट करना यह माता का दायित्व बन जाता है तो अच्छा ही पर प्रोत्साहित करना यह भी माता का परम दायित्व बनता है. दोनों ही इन उपक्रमों में साध्वी प्रमुखा ने अपने जीवन में महत्वपूर्ण महारत हासिल कर रखी थी. इसलिए वह नव दीक्षित संतो के लिए एक तरह से माता का दायित्व है वह निर्वहन करने वाले व्यक्तित्व के रूप में हर बालक साधु-संतों के मन के अंदर व प्रतिष्ठित हो चुकी थी.

मैंने देखा छोटे से छोटे काम के लिए भी मैंने कह दिया तो वह उसी समय बिना धूप की परवाह किए मेरा वह कार्य संपादित करने के लिए स्वयं तैयार हो जाते यदि स्वयं किसी कारण से नहीं जा सकती तो अपने निकट के साध्वी कल्पलता जी आदि साध्वियों को तत्काल भेज कर और वह कार्य पूरा करवा देते थे. ऐसी माता का मिलना है यह भी अपने आपके अंदर परम सौभाग्य की बात बन जाती है.

मेरे बचपन का प्रसंग 

मैं भी अपना परम सौभाग्य मानता हूं मेरे को आचार्य तुलसी जैसे निर्माता मिले तो साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी जैसे मेरे को वात्सल्य प्रदान करने वाली माता प्राप्त हुई. जिन्होंने मेरे को क,ख, ग पढ़ाना सिखाया. मैं जो भी दिन भर के अंदर पाठ याद करता प्रातः काल जब वह प्रातः सुबह का नाश्ता लेकर आती मेरे को पहले वह सारे पाठ है उनको सुनाने पड़ते तब जाकर मेरे को नाश्ता मिलता था. उस समय तो मेरे को वह बहुत ही बुरा लगता था, पर आज जब मैं याद करता हूं उस बात को तब मेरे को उसकी सच्चाई नजर आना प्रारंभ हो जाती है.

उस समय मेरे पर वह मेहनत नहीं करती तो आज क्या मैं अपने आपको साधना के पथ पर कभी आगे बढ़ा सकता था. नहीं बिल्कुल भी नहीं. आज जो मैं अपने कदमों को साधना के पथ पर आगे बढ़ा रहा हूं उसमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण योगदान यह संसार के अंदर किसी का रहा है तो वह साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा जी का.

Sadhvipramukha Kanakprabha ने दिए अनमोल सूत्र 

46 बरस की लंबी मेरी यह यात्रा आज भी मेरे को अपने जीवन में Sadhvipramukha Kanakprabha के द्वारा दिए हुए अनमोल सूत्रों से प्रज्वलित करती हुई नजर आ रही है. आज वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई है. उनके मन में इच्छा थी आचार्य तुलसी के मुखारविंद से मैं अपने जीवन के अंतिम यात्रा प्रारंभ करूं, पर आचार्य तुलसी उनकी इच्छा को पूरी नहीं कर पाए. उससे पहले वह स्वयं यह संसार को गंगाशहर में अलविदा कह कर रवाना हो गए थे. उनके जाने के पश्चात सभी प्रमुख का जीवन है वह एक तरह से नर्वस जीवन बन गया था.

Sadhvipramukha Kanakprabha

उनके मन के अंदर अब कोई आगे जीने की चाह इच्छा कामना यह बिल्कुल भी नहीं रही थी. केवल एक मात्र उद्देश्य रहा जब तक मेरा स्वास चलता रहे तब तक मैं आचार्य तुलसी के सपनों को साकार करते रहूँ. उसके लिए मेरे को चाहे कितने ही अपमान के घूंट पीना पड़ेंगे तो मैं पी लूंगी पर अपने गुरु के आदर्शों को में कभी भी तिलांजलि नहीं दूंगी. हमने देखा किस तरह से उन्होंने अपने जीवन में कष्ट को सहन किया था.

कट्टे-मीठे अनुभव 

सरदारशहर का वह दृश्य जब सामने आता है जब उनको प्रताड़ित करके अपमानित करके सरदारशहर से लाडनू की ओर रवाना कर दिया गया था. उनके कदम आगे बढ़ रहे थे पर आचार्य तुलसी की प्रेरणा उनको नया साहस भी प्रदान कर रही थी. परिणाम यह आया जिन्होंने अपमानित किया प्रताड़ित किया उनको अपनी भूल का अहसास होता है. लाडनू से उन्हें अपने पास में बुलाकर उनका सम्मान बढ़ाने में भी कोई प्रकार की कमी नहीं रखते हैं.

साध्वी समाज की समाधी का रखा ख्याल 

शासनमाता ने अपने दायित्व को कुशलता पूर्वक आगे बढ़ाना प्रारंभ किया. उनकी साध्वियो के प्रति जो एक भावना थी हर एक को अपने जीवन में समाधि का एहसास होता रहे इसके लिए व्यवस्था का दायित्व भी वह बहुत ही कुशलता के साथ में निभाते थे. आचार्य तुलसी ने सारा दायित्व है वह उनको ही सोंप रखा था. सारी व्यवस्थाएं मर्यादा महोत्सव पर वह बनाकर आचार्य तुलसी के पास में आती, उसी के अनुसार आचार्य तुलसी हैं व्यवस्थाओं को आगे बढ़ाना प्रारंभ कर देते थे.

आचार्य तुलसी के देवलोक होने के बाद जब Sadhvipramukha Kanakprabha जी व्यवस्था को लेकर आती है तब उनको कह दिया जाता है तुम अभी व्यवस्था में कुशल नहीं हो. इसमें हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है. शासन कैसे चलाया जाता है यह तुम्हारे को नहीं आता है. तुम अपना काम करो और जो व्यवस्थाएं जिनको करनी है वह करती रहेगी. जब इतना कठोर और कटु सत्य उनके कानों के अंदर गुंजायमान होता है तब उन्होंने उस समय जो क्षमता, समता, साहस का परिचय दिया वह आज सबके लिए एक आदर्श बन गया है.

विचारणीय प्रसंग 

भले ही आज हम अपने गाल बजा कर अपने आप को खुशहाल मान रहे हैं पर उस समय जो हमने व्यवहार किया था क्या वह व्यवहार इतनी बड़ी साध्वी प्रमुखा के लिए करना उचित था? आज भले ही हम उनको संथारा पचखा कर गर्व की अनुभूति कर रहे हैं. पर यह गर्व करने की अनुभूति नहीं है यह एक समय पश्चाताप करने की आवश्यकता को प्रतिपादित करती हुई नजर आ रही है.

आज हम ऐसे साध्वी प्रमुखा को इतनी महा भयानक कष्टों के साथ में गुजरते हुए देखते हैं और उनके साथ की अंदर किस तरह का व्यवहार किया जाता है. किस तरह से गाड़ियों की अंदर उनको इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर किया जाता है. यदि उनको समाधि पहुंचानी थी तो जयपुर जैसे केंद्र में रखकर आराम से उनको समाधि अवस्था में अवस्थित करके अपने आप ही वह संथारे की दिशा में अग्रसर करके परम समाधि का अनुभव प्राप्त कर सकती थी.

मेरी माता के प्रति मंगल कामना 

लगता है नियति को कुछ यह मंजूर नहीं था और जो नियति को मंजूर होता है वह होकर ही रहता है. आज इन परिस्थितियों के अंदर उसको संथारा व्रत है वह स्वीकार करवाया जाता है. मेरी माता जिन्होंने मेरे जीवन के अंदर नया परिवर्तन लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. आज मैं जैसे साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा हूं एकांत साधना क्यों अपने आप को गतिशील बना रहा हूं इसमें भी मेरी माता साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

आज मैं मेवाड़ में संबोधी श्री पार्श्वनाथ नागेश्वर तीर्थ के अंदर यह मंगल कामना कर रहा हूं. मेरी माता Sadhvipramukha Kanakprabha जी अपने मन के अंदर समता में रमण करते हुए अपने साथ में जिन जिन व्यक्तियों उन्हें बुरा व्यवहार किया है उन सब बुरे व्यवहार को अपने मन से भुलाकर अपने आपको संथारे में स्थापित करेगी तो वे आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना प्रारंभ कर देगी.

देवलोक में जाने के बाद में भी मेरी माता साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा मेरे को कभी भी भूलने का प्रयास नहीं करेगी मेरे को और ज्यादा मंत्र शक्ति के साथ में साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा प्रदान करते रहेंगे. इसी मंगल कामना के साथ संयमी संथारा यात्रा के प्रति मंगल कामना.

लेखक संत मुनि भूपेंद्र कुमार
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